Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi: भारतीय साहित्य में संस्कृत भाषा का एक विशेष स्थान है। संस्कृत भाषा वेदों की मातृभाषा है और इसे देववाणी भी कहा जाता है। इस भाषा में लिखित ग्रंथों ने भारतीय संस्कृति को अमर बनाया है। इस आदिकालीन भाषा की विशेषता और महत्व को समझने के लिए हमें संस्कृत श्लोकों का अध्ययन करना आवश्यक है। इस लेख में हम जानेंगे कि संस्कृत श्लोक क्या है, इसका महत्व क्या है, और इसका उपयोग किस क्षेत्र में किया जाता है।
वेदों का महत्व
वेद संस्कृत भाषा में लिखित धार्मिक ग्रंथ हैं। इनमें भारतीय ज्ञान, दर्शन, और सभ्यता के मूल सिद्धांत और विचार दर्शाए गए हैं। वेदों के चार प्रमुख संहिताएं हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। ये संहिताएं मंत्र, छंद, ब्राह्मण, और उपनिषद जैसे अंशों से मिलकर बनी हैं।
वेदों के प्रकार
वेदों के चार प्रमुख प्रकार हैं:
- संहिता: यहाँ पर वेदों के मंत्र संग्रह होते हैं। इनमें वेदों के सभी मंत्र संग्रहित होते हैं जो यज्ञों के अभिषेक और अनुष्ठान में प्रयोग होते हैं।
- ब्राह्मण: यहाँ पर वेदों के अनुष्ठान विधियों और व्याख्यानों का वर्णन होता है। इसमें यज्ञों के निर्वहण के लिए आवश्यक तत्त्वों की व्याख्या की जाती है।
- अरण्यक: यह वेदों के आध्यात्मिक भाग हैं जो वानप्रस्थाश्रम और संन्यास जीवन के उद्देश्य और उपासना पर आधारित हैं।
- उपनिषद: ये वेदों के अंतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण भाग हैं। इनमें आध्यात्मिक ज्ञान, ब्रह्मविद्या, और आत्मज्ञान का विस्तारित वर्णन होता है।
वेदों की महत्वपूर्णता
वेदों की महत्वपूर्णता इसलिए है क्योंकि इनमें भारतीय संस्कृति और धर्म के मूल सिद्धांत समाहित हैं। ये ग्रंथ हमें ज्ञान, शक्ति, और मुक्ति की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। इनमें विभिन्न विषयों पर विचार और अध्ययन के लिए संक्षिप्त रूप से लिखे गए हैं।
50+ संस्कृत श्लोक अर्थ सहित | Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
अर्थात् : आठ गुण मनुष्य को सुशोभित करते है – बुद्धि, अच्छा चरित्र, आत्म-संयम, शास्त्रों का अध्ययन, वीरता, कम बोलना, क्षमता और कृतज्ञता के अनुसार दान।
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥
अर्थात् : सभी कीमती रत्नों से कीमती जीवन है जिसका एक क्षण भी वापस नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इसे फालतू के कार्यों में खर्च करना बहुत बड़ी गलती है।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥
अर्थात् : दुर्जन की मित्रता शुरुआत में बड़ी अच्छी होती है और क्रमशः कम होने वाली होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार से दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है।
यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति।
अर्थात् : मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है, परिश्रम जैसा दूसरा कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता है।
परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।
अर्थात् : पराया अन्न, पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥
अर्थात् : संसार में अनेक शास्त्र, वेद है, बहुत जानने को है लेकिन समय बहुत कम है और विद्या बहुत अधिक है। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थात् : कोई भी काम कड़ी मेहनत के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है सिर्फ सोचने भर से कार्य नहीं होते है, उनके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है। कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता उसे शिकार करना पड़ता है।
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
अर्थात् : किसी को नहीं पता कि कल क्या होगा इसलिए जो भी कार्य करना है आज ही कर ले यही बुद्धिमान इंसान की निशानी है।
नास्ति मातृसमा छाय
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रपा॥
अर्थात् : माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं॥
आपदामापन्तीनां हितोऽप्यायाति हेतुताम् ।
मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने ॥
अर्थात : जब विपत्तियां आने को होती हैं, तो हितकारी भी उनमें कारण बन जाता है। बछड़े को बांधने मे माँ की जांघ ही खम्भे का काम करती है।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
अर्थात : माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। मातृभूमि के संगीत और सुंदरता ने हमें हमेशा चकित किया है। इसकी सुंदरता हमें हमारी अस्तित्व की महत्वता को समझाती है। माँ की ममता और संयम हमारे जीवन को आनंददायक बनाते हैं। वे हमारे जीवन के मार्गदर्शक और नेतृत्व का प्रतीक हैं। मातृभूमि हमें संयम और धैर्य की सीख देती है। इस देश में महानता की बहुत सी कहानियाँ हैं, जो हमें प्रेरित करती हैं। माँ और मातृभूमि दोनों ही हमारे लिए अनमोल हैं और हमें गर्व महसूस कराती हैं। इसलिए हमें इनका सम्मान करना चाहिए और ह
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।
अर्थात : मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे
न मातु: परदैवतम्।
अर्थात: मां से बढ़कर कोई देव नहीं है। मां हमारे लिए अनमोल हैं। मां की ममता अद्वितीय है और उनका स्नेह असीम है। मां सदैव हमारे साथ होती हैं और हमें संभालती हैं। उनके प्यार और लाड़-प्यार से दूसरा कोई नहीं खिल सकता। हमारे जीवन में मां का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है और हम उन्हें सराहना करते हैं। मां की कड़ी मेहनत, समर्पण और स्वार्थहीनता का उदाहरण हमें प्रेरित करता है। हमेशा मां के प्रति आभारी होना चाहिए और उनकी खुशियों का ख्याल रखना चाहिए।
आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमंगे
मां मुञ्च वागुरिक याहि कुरु प्रसादम् ।
अद्यापि शष्पकवलग्रहणानभिज्ञः
मद्वर्त्मचञ्चलदृशः शिशवो मदीयाः ।।
अथार्त : हे शिकारी! तुम मेरे शरीर के प्रत्येक भाग को काटकर अलग कर दो। लेकिन,बस मेरे दो स्तनों को छोड़ दो। क्योंकि, मेरा छोटा बच्चा जिसने अभी घास खाना शुरू नहीं किया है। वे बड़ी आकुलता से मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। अगर मैं उसे दूध नहीं पिलाऊँगी तो वह निश्चित रूप से मर जाएगा । तो कृपया मेरे स्तनों को छोड़ दो।
तावत्प्रीति भवेत् लोके यावद् दानं प्रदीयते ।
वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम्
अथार्त : लोगों का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उनको कुछ मिलता रहता है। मां का दूध सूख जाने के बाद बछड़ा तक उसका साथ छोड़ देता है। लोगों का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उनको कुछ मिलता रहता है। मां का दूध सूख जाने के बाद बछड़ा तक उसका साथ छोड़ देता है।
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
अथार्त: दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं। बिना किसी पूर्व सत्यापन या व्याख्या के ये सभी तथ्य यथार्थ हैं। इस दृष्टिकोण से ये स्पष्ट होता है कि इस विषय पर अधिक विsts
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार॥
अथार्त: रात खत्म होकर दिन आएगा, सूरज फिर उगेगा, कमल फिर खिलेगा- ऐसा कमल में बन्द भँवरा सोच ही रहा था, और हाथी ने कमल को उखाड़ फेंका. रात का समय जब समाप्त होगा, उसके बाद दिन आएगा और सूरज फिर से उगेगा। कमल, इसी तरह, अपनी सुंदरता को दिखाकर फिर से खिलेगा, लेकिन कुछ समय के लिए, वह विचार में ही रह गया कि क्या भँवरा उसे फोड़ देगा। यहां तक कि वाकई में, उसकी सोच के खिलाफ हाथी ने कमल को बर्बाद कर दिया
सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण प्रविश्याभ्यंतरं रिपु:
नाशयेत् च शनै: पश्चात् प्लवं सलिलपूरवत्
अर्थात : नाव में पानी पतले छेद से भीतर आने लगता है और भर कर उसे डूबा देता है, उसी तरह शत्रु को घुसने का छोटा रास्ता या कोई भेद मिल जाए तो उसी से भीतर आ कर वह कबाड़ कर ही देता है।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्
यह पाठ कहता है कि महान व्यक्तियों और शिक्षकों के संवाद की संवेदनशीलता एक व्यक्ति की प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है। जैसे कि एक बूंद पानी कमल के पत्ते पर मोती की तरह चमकती है।
निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषं भवतु मा वास्तु फटाटोपो भयंकरः।
अथार्त : सांप जहरीला न हो पर फुफकारता और फन उठाता रहे तो लोग इतने से ही डर कर भाग जाते हैं। वह इतना भी न करे तो लोग उसकी रीढ़ को जूतों से कुचल कर तोड़ दें।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात : धर्म का सार तत्व यह है कि जो आप को बुरा लगता है, वह काम आप दूसरों के लिए भी न करें। यह ऐसा आदर्श है जिसे हमें समझना चाहिए और उचित रूप से अपनाना चाहिए। अगर हम दूसरों के साथ सहयोग और न्याय से आचरण करेंगे, तो हम समाज में एक अधिक उदार और सद्भावपूर्ण माहौल बना सकते हैं। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि हम दूसरों के साथ सहयोग करने, समझदारी और न्याय के साथ ही अपने कर्तव्यों को पूरा करें।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।
अर्थ: धर्म है क्या? धर्म है दूसरों की भलाई। यही पुण्य है। और अधर्म क्या है? यह है दूसरों को पीड़ा पहुंचाना। यही पाप है। धर्म वह प्रणीक है जो अपने साथी प्रणीयों के साथ उच्चवादी और आदर्शवादी बर्ताव करता है। प्रेम और सहभागिता धर्म की मुख्य आधारशिला हैं जो सभी मानवीय समूहों के लिए आवश्यक हैं। अधर्म वह प्रणीक है जो अन्य जीवों को नीचा दिखाने और दुर्भाग्य पहुंचाने की कोशिश करता है। ऐसा व्यक्ति अहंकारी और स्वार्थी होता है, जो केवल अपने ही लाभ और सुख के लिए संसार के अन्य प्राणियों को भुग
मानात् वा यदि वा लोभात् क्रोधात् वा यदि वा भयात्।
यो न्यायं अन्यथा ब्रूते स याति नरकं नरः।
अर्थात: कहा गया है कि यदि कोई अहंकार के कारण, लोभ से, क्रोध से या डर से गलत फैसला करता है तो उसे नरक को जाना पड़ता है। इस प्रश्न का उत्तर विलक्षण और गंभीर तत्वों पर प्रकाश डालता है। जब कोई अहंकारी होता है, वह अपनी अहंकार की वजह से सही और धार्मिक निर्णय से दूर चला जाता है। इसी तरह, लोभ, क्रोध और डर भी सही निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। ये दूसरे और अनुचित गतिविधियों के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं। बिना सोचे-समझे फैसले लेने से हमें नरकसा निर्णय करना पड़ता है। इसलिए, सत्य, धर्म और सम
दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।
आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
अर्थात: दरिद्रता, रोग, दुख, बंधन और विपदाएं तो अपराध रूपी वृक्ष के फल हैं। इन फलों का उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है। इसलिए हमें सत्य और न्याय की पाठशाला में बैठना चाहिए, ताकि हम इन दुखों से बच सकें। हमें ध्यान देना चाहिए कि जीवन में सभी अनुभवों का अपना महत्व होता है, चाहे वो सुख हो या दुःख। हमें अपने अवसरों को महसूस करना चाहिए और अपनी भूमिका को स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार, हम न केवल अपने जीवन को बढ़ा सकते हैं, बल्कि इस वृक्ष के फलों को सीमित करके दूसरों की मदद कर सकते हैं।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।
अर्थात : कहते हैं कि कुल की भलाई के लिए की किसी एक को छोड़ना पड़े तो उसे छोड़ देना चाहिए। गांव की भलाई के लिए यदि किसी एक परिवार का नुकसान हो रहा हो तो उसे सह लेना चाहिए। जनपद के ऊपर आफत आ जाए और वह किसी एक गांव के नुकसान से टल सकती हो तो उसे भी झेल लेना चाहिए। पर अगर खतरा अपने ऊपर आ पड़े तो सारी दुनिया छोड़ देनी चाहिए।
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥
अर्थात : सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार। अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है।
पश्य कर्म वशात्प्राप्तं भोज्यकालेऽपि भोजनम् ।
हस्तोद्यम विना वक्त्रं प्रविशेत न कथंचन । ।
अर्थात : भोजन थाली में परोस कर सामने रखा हो पर जब तक उसे उठा कर मुंह में नहीं डालोगे , वह अपने आप मुंह में तो चला नहीं जाएगा। भोजन थाली में परोस कर सामने रखा हो पर जब तक उसे उठा कर मुंह में नहीं डालोगे, वह अपने आप मुंह में तो चला नहीं जाएगा। Now परवाना जल्दी उड़ान भरा सकता है।
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
अर्थात : आहार, निद्रा, भय और मैथुन– ये तो इन्सान और पशु में समान है। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है। इन्सान के अलावा धर्म की महत्ता बड़ी होती है। धर्म उन्हें अलग करता है और उनके अंतर्निहित मूल्यों और नीतियों को प्रकट करता है। यह उन्हें पशुता से बचाता है और उन्हें एक बेहतरीन जीवन प्रदान करता है। इसलिए, धर्म मानवता की उच्चतम पहचान है और हमें उसे अपने जीवन में महत्वपूर्ण बनाना चाहिए।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥
अर्थात: धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं। गुरु उन्हीं व्यक्तियों को संदेश देते हैं जो अपने जीवन में धर्म की महत्ता को समझना चाहते हैं। वे ज्ञान, शिक्षा और प्रेरणा का स्रोत होते हैं। गुरु के प्रेरणादायक आदेशों का पालन करने से शिष्य धार्मिकता में सुधार कर सकते हैं और धार्मिक मार्ग पर सफलता की प्राप्ति कर सकते हैं। गुरु की महिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है और हमेशा सम्मान की जानी चाहिए।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
अर्थात : आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ? !! अथार्त जीवन में इंसान को कुछ प्राप्त करना है तो उसे सबसे पहले आलस वाली प्रवृति का त्याग करना होगा।
विवादो धनसम्बन्धो याचनं चातिभाषणम् ।
आदानमग्रतः स्थानं मैत्रीभङ्गस्य हेतवः॥
सरल शब्दों में कहें तो: वाद-विवाद, धन के लिए संबंध बनाना, मांगना, अत्यधिक बोलना, कर्ज लेना और आगे बढ़ने की कोशिश करना – ये सब मित्रता के टूटने के कारण बन जाते हैं।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥
अर्थात : जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
अर्थात : उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है। मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता।
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति।
अर्थात : इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है।
शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतलङ्घनम्।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतनि शनैः शनैः॥
अर्थात : राह धीरे धीरे कटती है, कपड़ा धीरे धीरे बुनता है, पर्वत धीरे धीरे चढा जाता है, विद्या और धन भी धीरे-धीरे प्राप्त होते हैं, ये पाँचों धीरे धीरे ही होते हैं।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
अर्थात : जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
अर्थात :- चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
अर्थात :- कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥
अर्थात : न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥
अर्थात : मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥
अर्थात : दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥
अर्थात : जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
अर्थात : किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
अर्थात : जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
अर्थात : जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥
अर्थात : विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु अपनी रक्षा का प्रसन सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥
अर्थात : जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे।
राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः ॥
अर्थात : जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है ।
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना ।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥
अर्थात: भोज्य पदार्थ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते। इनके अलावा, शरीर के स्वास्थ्य और मनोबल के अधिकारी मूल्यों का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। तपस्या और त्याग के माध्यम से ही हम अपार सुख का आनंद ले सकते हैं और सच्ची संतुष्टि प्राप्त कर सकते हैं। तप का शाब्दिक अर्थ होता है संयम और स्वाध्याय, जिससे हम अच्छे कर्म करके अपने मन और आत्मा को शुद्ध करते हैं। इस प्रकार, अपने जीवन में तपस्या को समर्पित करके हम सच्चे सुख और आनंद का अनुभव
निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥
अर्थात : सद्गुण, शुभ कर्म, भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास, यज्ञ, दान, जनकल्याण आदि, ये सब ज्ञानीजन के शुभ- लक्षण होते हैं ।
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